Thursday, October 14, 2010

क्या हूँ मैं…….



क्या हूँ मैं ..........
मैं भी नहीं जानती
हूँ मैं मोम की गुड़िया
पल में पिघल जाती हूँ...
कभी लगता है....
चट्टान सी हूँ मैं कठोर....
जिसे कोई हिला नहीं सकता..
आखिर क्या हूँ मैं....
मैं भी नही जानती..

दुनिया से लड़ने की ताकत रखती हूँ मैं
कभी दुनिया की कुछ बातों से ही डर जाती हूँ...
चाँदनी की तरह हूँ मैं शीतल या....
सूरज की किरणों की तरह तेज
आखिर क्या हूँ मैं....
मैं भी नही जानती..

Friday, May 21, 2010

आ भी जाओ सावन




मन आज उदास है.....

आसमान की ओर देखकर कह रहा है....

सावन तुम कब आओगे..?

तुम्हारे इतंजार में तड़प रही है धरती

सूख गए हैं बगीचे

हरियाली को तरस रही आँखे

नदियों तालाबों पोखरों को जरूरत है तुम्हारी

निभाओं अपनी सच्ची दोस्ती, करो इनकी काया शीतल

आँखे सूझ गयी तुम्हारें इतंजार में

आस लगाएँ है सभी तुम्हारे झलक के लिए

लो मत इतनी परीक्षा अपनों की

इतनी भी क्या नाराजगी हमसे

तुम आना नहीं चाहते हमारे पास।

तुम्हारें मोतियों के एहसास याद आ रहे है

उन यादों में सिमटी है जिंदगी के प्यारे लम्हें

उन लम्हों को फिर से जीना चाहता है ये मन

लौटना चाहता है, उस पल में

जहाँ होते थे सिर्फ मैं और तुम

सिमटें रहते थे एक दूसरे के संग

मन उन पलों को याद करके बैचेन हो उठा है

तुम्हारी दूरी अब सही नहीं जाती

आ भी जाओ सावन

इतनी परीक्षा न लो अपने प्यार का...।

Monday, May 17, 2010

खत्म होते बाघ चिंता का विषय


अब वह दिन दूर नहीं जब बंगाल- प्रसिद्ध टाइगर के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे और अगर दर्शन होंगे तो भी वह केवल तस्वीरों में। जिस तेजी से देश में बाघों की संख्या घट रही है, उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब बाघों का नामोनिशान ही मिट जाएगा।
पूरी दूनिया में मानवीय गतिविधियाँ व्यापक स्तर पर पर्यावरण का विनाश कर रही हैं जिससे जैव-विविधता उच्च दर से नष्ट हो रही है। इसी का परिणाम है कि बाघ अत्यत तेजी से नष्ट हो रहे हैं। चीन में बाघों और चीतों की तस्करी से भारत के बाघों पर खतरा मंडरा रहा है। पहले जहां देश में बाघों की संख्या 40 हजार थी वही आज इनकी संख्या 1411 ही बची हैं।
वन जीवों का निवास स्थान होता है पर आज निवास स्थान, सड़कों और रेल-पटरियों के निर्माण के लिए तेजी से वनों को काटा जा रहा है जिसके कारण बाघों की बची संख्या पर खतरा मंडराने लगा है। लोभ के प्रभाव में आकर मानव न केवल बाघों का शिकार कर रहा है बल्कि इनके चमड़ों और दांतों का व्यापार भी कर रहा है। सौंदर्य की सामग्री, औषधि और घरों की सजावटी समानों के लिए बाघों का बड़े पैमाने पर शिकार किया जा रहा है। नक्सलवाद की जिस समस्या को प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं, वह न केवल मानव को क्षति पंहुचा रहा है बल्कि उसका दुष्प्रभाव वन्यप्राणियों को भी भुगतना पड़ रहा हैं। नक्सली इलाकों से सटे अभ्यारण्यों में जितने भी जानवरों की हत्याएं होती हैं, माना जाता है कि ये नक्सलियों की करतूत होती है। नक्सली धन उगाही के लिए जानवरों की हत्याएं करते हैं। शिकारियों के निशाने पर इतने बाघ चढ़े कि इनकी संख्या खतरे के घेरे में आ गयी है। प्रशासन ने अपनी चूक स्वीकार करने के बजाय जंगलों में निवास करने वाले आदिवासियों को यह कहते हुए खदेड़ दिया कि इन्हीं से बाघों को खतरा है। आदिवासियों के जंगल से निकल जाने के बाद भी इनकी संख्या लगातार घटती रही।
देश को स्वंतत्रता मिलने के लगभग 25 वर्ष बाद सन् 1972 में हमारे देश में वन्यजीव संरक्षण कानून बन गया था पर आज तक जीवों की की रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएं जा रहे हैं। बाघों की सुरक्षा के लिए कई तरह के प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं पर जब तक लोगों में बाघों के प्रति जागरूकता नही फैलायी जाती तक स्थिति में सुधार लाना कठिन है।
बाघ भारत का राष्टीय पशु है। इसलिए देश के हर नागरिक को ”जिओ और जीने दो” को समझने की आवश्यकता है तभी बाघों की बची हुई संख्या को सुरक्षित रखा जा सकता है। देश के हर नागरिक को बाघों की रक्षा के लिए पहल करनी चाहिए। कहीं इतनी देर न हो जाए कि भारत के राष्ट्रीय पशु का आस्तिव ही मिट जाए ।

Sunday, May 9, 2010

तेरे संग

नन्ही सी आयी थी मैं इस दुनिया में
माँ के बाद तुने ही प्यार किया मुझें….

खेलती थी तेरे ही संग,
लड़ती थी तेरे ही संग,
रुठती थी तुझसे
तू आती थी मनाने मुझे
लाती थी चॉकलेट अपने संग

देखते - देखते बड़े हो गए हम
समय ले आया उस मोड़ पर हमें
जिस मोड़ से दूर हो गए हम

तू चली गयी किसी और के संग
मैं रह गयी उसी मोड़ पर

दूर हो गए एक दूसरे से हम
पर प्यार न हो सका कम
क्योंकि एक ही रंग हैं हम....

Saturday, May 8, 2010

जनसंचार

जनसंचार के बच्चे हम
थोड़े हैं नादान, थोड़े है शैतान
पर बगिया के माली हैं बड़े बुद्धिमान।

लक्ष्य की ओर बढ़ने की राह दिखाते
कराते मीडिया से पहचान
पढ़ाते- पढ़ाते इतना हँसाते हमें
कि हो जाती थकान तमाम

दूर – दूर से आए हम बच्चें
करेंगे गौरवान्वित अपने शिक्षक का नाम।

क्या रिश्ता है तुझसे मेरा

क्या रिश्ता है तुझसे मेरा....
क्यों दिल सोचता है, हर पल तेरे लिए
क्यों अच्छा लगता है तुझसे बाते करना
क्यों चाहती हूँ तेरे साथ चलना

क्यों झगड़ती हूँ मैं तुझसे,
क्यों रूठती हूँ मैं तुझसे,
क्यों एहसास होता है मनाने आओगे तुम....
क्यों लगता है रूह हो तुम मेरी....

पर जब खामोशी में बैठती हूँ..
तो यही सोचती हूँ....
रिश्तो की इस भीड़ में....
आखिर क्या रिश्ता है तुझसे मेरा....

कितनी सुरक्षित हैं मामा की भांजियाँ ?


लोगों में मामा के नाम से मशहूर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लड़कियों के विकास और सुरक्षा के लिए लाडली लक्ष्मी योजना और जननी सुरक्षा चला रहे हैं। मामा चाहते हैं कि उनकी भांजियाँ सुरक्षित रहें और उनका सर्वांगीण विकास हो।
लेकिन, मामा की ये भांजियाँ उन्हीं के राज्य में सुरक्षित नही हैं। प्रदेश में मासूम बच्चियों के उत्पीड़न की घटनाएँ तेजी से सामने आ रही हैं। आए दिन लड़कियों के साथ बलात्कार के वारदातों का खुलासा हो रहा है। महज 100 दिनों में नाबालिग लड़कियाँ दरिंदों का शिकार हुई हैं। सबसे ज्यादा समाज के दलित, अन्य पिछड़े वर्ग और कमजोर तबके की नाबालिगों को शिकार बनाया जा रहा है। समाज के कमजोर वर्ग होने के कारण ये अन्याय के खिलाफ नही लड़ते। इन्हें लगता है कि अगर ये आवाज उठाएंगे तो कोई इनकी पुकार नही सुनेगा। बात हवा की तरह फैलेगी और इनकी बदनामी होगी।
एक लड़की के लिए उसके चरित्र से बढ़कर और कुछ नहीं होता। पर उसके चरित्र पर ही प्रश्न लग जाएँ तो उसका समाज में रहना कठिन हो जाता है।
आखिर इनके मामा किस प्रकार की योजना चला रहे हैं जिससे ये लड़कियाँ अपने ही राज्य में असुरक्षित हैं? इनके मामा शिवराज सिंह चौहान को क्या इनकी चीखें सुनाई नही देती या फिर ये कहा जाये कि इनके मामा ने सिर्फ योजनाएँ ही बनाई है और इनके अमल की कोई व्यवस्था नहीं है....?

Friday, April 30, 2010

खोता बचपन


हमारे नेताओं के शब्दों में बच्चों को देश का भविष्य कहा जाता है। बच्चे हमारे देश के भविष्य हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले भारत की तस्वीर किसी को भी डरा सकती है। हर साल चाचा नेहरू के बच्चों को, “नई सुरक्षित दुनिया, नया सपना’’ देने का वादा किया जाता है लेकिन हकीकत में बचपन पर तेजी से खतरा मंडरा रहा है।
वर्षों से बाल श्रम हमारे समाज में एक बुराई के रूप में कायम रहा है। देश में बड़ी तादाद में बाल मजदूर हैं। कोमल बचपन को श्रम की आग में झोंक देना किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक बात है। बाल श्रमिक एक अदृश्य गुलाम की तरह जीवन जीते हैं लेकिन अपने खिलाफ होनेवाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।
रोडवेज, बस-स्टैण्ड, रेलवे, सब्जी-मण्डी सिनेमा हॉल आदि नगरों-महानगरों सार्वजनिक स्थानों के आस-पास कूड़े-कचड़े चुनते मिल जाएंगे। ये बच्चे नहीं जानते कि स्कूल किस चिड़िया का नाम है। इन्हें बचपन से ही श्रम की ओर धकेल दिया जाता है। 1 अप्रैल को शिक्षा बिल पास हुआ जिसमें कहा गया है 6 से 14 वर्ष तक सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी। बिल पास होने के बावजूद भी ये बच्चे शिक्षा से वंचित हैं । पटाखे उघोग, बीड़ी उघोग, आभूषण उघोग में बच्चे बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो गेहूँ, धान और गन्ने की बुवाई-कटाई के समय स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति 20-30 प्रतिशत रह जाती है। खेतो में मजदूरी करने के लिए अभिभावक ही उन्हें अपने साथ ले जाते हैँ।
बाल-श्रम इन बच्चों से इनका बचपन छीन रहा है। बैग टांग कर स्कूल जाना, खेलना और अपनी पसंदीदा चीजें खाना, दोस्तों के साथ मस्ती करना इनकी कल्पना में ही रह जाता है। बाल-श्रम के कारण बच्चों में समय से पूर्व ही ऐसी कई बीमारियाँ हो जाती हैं जिन्हें सारी उम्र उन्हें सहना पड़ता है। कूढ़े के ढेर से इन्हें कई संक्रामक रोग हो जाते है। वे कब बचपन से जवानी की दहलीज पर पहुँच जाते है उन्हें पता ही नही चलता। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि इन बच्चों को श्रम कार्यों में इनके अभिभावक ही धकेलते हैं। काम में जरा सी भी देर हुई कि इन्हें अपने मालिकों से माँ , बहन से संबंध जोड़ने वाली गालियों के साथ पुकारा जाता है। इस स्थिति में इनका गुस्सा होना लाजमी है, जिसके चलते ये धीरे-धीरे नशे की ओर झुकने लगते है ओर जानलेवा नशीली पदार्थों का सेवन करने लगते हैं।
पिछले साल महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिए गए हलफनामें की सुनवाई के दौरान सरकार ने कहा था कि 2010 तक राज्य से बाल मजदूरी पूरी तरह खत्म कर दी जाएगी। परन्तु, आज बाल-श्रम दिन प्रति बढ़ता जा रहा है और शिक्षा का अधिकार बिल को इससे जोड़ने की कोई पहल नहीं की जा रही है। अधिकतर बाल मजदूर बिहार, झारखण्ड, छतीगढ़ से बड़े शहरों में आते हैं जहाँ इनका जबरदस्त शोषण होता है। यह सब सरकार और प्रशासन के नाक तले होता है लेकिन उदासीन तंत्र आंख मूंदे यह देखता रहता है। इन्हे आए दिन प्रताड़ित किया जाता है पर गरीबी के कारण ये आवाज नहीं उठाते और प्रताड़ित होते रहते हैं।
बाल श्रमिकों की रक्षा के लिए श्रम कानून बनाया गया है पर इसे लागू नहीं किया गया है यह केवल कागजों पर ही तैयार किया गया है। आज समाज को बाल अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि बच्चों का काम मजदूरी करना नहीं, बल्कि पढ़ाई है। अगर वाकई समाज भविष्य के प्रति संजीदा है तो सामाजिक माहौल को सुधारना ही होगा।

अन्नी अंकिता

Saturday, April 24, 2010

काश तू मेरे साथ रहती

तुझसे दूर हो के समझी मैं
कैसी है ये जिन्दगी.....
सब हैं साथ यहाँ मेरे
पर कोई अपना नही
जो प्यार से मुझे पुकारे

थी जब साथ तेरे
करती थी तुझे तंग
तू डाटती थी मुझे प्यार से
मैं रूठती थी तुझसे

पर, तुझसे दूर हो के समझी
तेरी डाँटो की कहानी
सोचती थी काश ऐसा वक्त आता
जहाँ कोई न होता डाँटने वाला,

मैं होती सपनों की दुनिया में
करती खुद से बातें
नाचती, गाती, झूमती फूलों की बगिया में
पर जब वक्त आया
तो लगा काश तू यहाँ होती
मुझे डाँटने के लिए
मैं सर रख के सो सकती
तेरी आँचल की छाँव में....

माँ

माँ तुम मुझे क्यों भेज रही हो...........
माँ , तुम वो हो, जिसने मुझे जन्म दिया ।
माँ , तुम वो हो, जिसने मुझे चलना सिखाया।
माँ , तुम वो हो, जिसने मुझे बड़ा किया।
तुमने ही कहा था, मैं
तुम्हारे दिल का टुकड़ा हूँ।
फिर ऐसा क्या हो गया माँ.....
तुम मुझे किसी और के पास
क्यों भेज रही हो....
क्या वो दूसरा मुझे तुम्हारे जितना प्यार देगा...
क्या तुम मुझसे दूर रह लोगी...
क्या मुझसे दूर होके तुम खुश रह पाओगी....
नही रह पाओगी न माँ...
तो समाज की इस प्रथा को तोड़ दो माँ..
मुझे अपने साथ रहने दो माँ....

Monday, April 12, 2010

3-जी - एक मुट्ठी में दुनिया

आज हर दिन नये-नये तकनीकों की खोज की जा रही है। मनुष्य उन तकनीकों से जुड़कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा है। वाकई तकनीक की इस नयी क्रान्ति यानि 3-जी मोबाइल फोन सेवा लोगों की जीवन शैली और काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाएगी। यह सोचना काफी दिलचस्प है कि 3-जी मोबाइल, संचार की दुनिया में कितनी रंगीन और मजेदार हो जाएगी।
अगर हम 3-जी मोबाइल सेवा का प्रयोग कर रहे है तो हम अपनी पत्नी से झूठ नही बोल पांएगे कि मैं आफिस की मीटिंग मे हुँ और मुझे आने में देर हो जाएगी, क्योकि 3-जी सेवा में न केवल चेहरा दिखायी देता है ब्लकि हमारे आस पास का दृश्य भी दिखाई देता है । इसकी सहायता से टेली मेडिसिन और सिटीजन जर्नलिज्म जैसे प्रयोगों को काफी प्रोत्साहन मिलेगा। यानि कोई भी व्यक्ति किसी भी घटना का लाइव विडियो रिकार्ड करके उसे अपलोड कर सकता है। इससे मीड़िया की ताकत बढ़ेगी और विकासशील खबरो की ओर मीड़िया का ध्यान बढ़ेगा ।
हमारे देश में इंटरनेट सभी जगहों पर उपलब्ध नही है पर दूर-दराज के इलाके जहाँ पहुँच पाना मुश्किल है वहाँ 3-जी मोबाइल सेवा की सहायता से न केवल दूर-दराज के इलाकों से जुड़ा जा सकेगा बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी यह सेवा लाभदायक साबित होगी। छोटे शहरों तथा गाँवों में 3-जी सेवा के माध्यम से लोगों को शिक्षा के साथ जोड़ा जा सकेगा। कुल मिलाकर 3-जी सेवा लोगों को एक मुट्ठी में लाने का काम करेगी।